हाई कोर्ट ने धार्मिक मान्यताओं का हवाला देते हुए पति को तलाक की मंजूरी दी, पत्नी की अपील खारिज

 हाई कोर्ट ने धार्मिक मान्यताओं का हवाला देते हुए पति को तलाक की मंजूरी दी, पत्नी की अपील खारिज

राज्य ब्यूरो मोहम्मद आसिफ खान संपादक बीरेंद्र कुमार चौधरी

मामले में फैसला सुनाते हुए पति-पत्नी के रिश्तों पर धार्मिक ग्रंथों, रामायण और महाभारत में वर्णित मान्यताओं का हवाला दिया है।

 

 

बिलासपुर। छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच ने एक तलाक के मामले में फैसला सुनाते हुए पति-पत्नी के रिश्तों पर धार्मिक ग्रंथों, रामायण और महाभारत में वर्णित मान्यताओं का हवाला दिया है। इस आधार पर कोर्ट ने पति को तलाक की मंजूरी दी और परिवार न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। परिवार न्यायालय के इस फैसले को पत्नी ने हाई कोर्ट में चुनौती दी थी।

 

मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले के करंजिया निवासी नेहा, जो मसीही धर्म का पालन करती हैं, उसने 7 फरवरी 2016 को छत्तीसगढ़ के बिलासपुर निवासी विकास चंद्रा से हिंदू रीति-रिवाज से विवाह किया था। विवाह के कुछ महीनों बाद से नेहा ने हिंदू धार्मिक मान्यताओं और देवी-देवताओं का उपहास करना शुरू कर दिया। दिल्ली में नौकरी कर रहे विकास के साथ कुछ समय बिताने के बाद नेहा वापस बिलासपुर लौट आई और फिर क्रिश्चियन धर्म अपनाते हुए चर्च जाना शुरू कर दिया।

पत्नी के इस व्यवहार से परेशान होकर विकास ने परिवार न्यायालय में तलाक की अर्जी दी। सुनवाई के बाद, परिवार न्यायालय ने विकास के पक्ष में फैसला सुनाते हुए तलाक की डिक्री जारी की। पत्नी ने इस फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी।

दस वर्षों से किसी भी अनुष्ठान में शामिल नहीं हुई थी महिला

 

हाई कोर्ट में जस्टिस रजनी दुबे और जस्टिस संजय जायसवाल के डिवीजन बेंच में सुनवाई हुई, जहां सुनवाई के दौरान पाया गया कि नेहा ने खुद स्वीकार किया है कि बीते दस वर्षों में वह किसी भी हिंदू धार्मिक अनुष्ठान में शामिल नहीं हुई हैं और पूजा-अर्चना के बजाय उन्होंने चर्च जाना शुरू कर दिया है। विकास ने कोर्ट को बताया कि उनकी पत्नी ने बार-बार उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत किया और देवी-देवताओं का अपमान किया। मामले की सुनवाई के बाद, हाई कोर्ट ने परिवार न्यायालय के फैसले को उचित ठहराते हुए कहा कि इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है और नेहा की अपील को खारिज कर दिया।

कोर्ट ने की महत्वपूर्ण टिप्पणी

जस्टिस रजनी दुबे व जस्टिस संजय जायसवाल की डीबी में सुनवाई हुई। कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता पत्नी ने खुद स्वीकार किया है कि पिछले 10 वर्षों से उसने किसी भी तरह की पूजा नहीं की है और इसके बजाय वह अपनी प्रार्थना के लिए चर्च जाती है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि यह दो अलग-अलग धर्मों के व्यक्तियों के बीच विवाह का मामला नहीं है, जहां धार्मिक प्रथाओं की पारस्परिक समझ की अपेक्षा की जाती है। यहां, पति ने बताया कि पत्नी ने बार-बार उसकी धार्मिक मान्यताओं को अपमानित किया, उसके देवताओं का अपमान किया और उसे अपमानित किया। कोर्ट के विचार में, पत्नी से ऐसा व्यवहार, जिसे ‘सहधर्मिणी’ होने की उम्मीद है- एक धर्मनिष्ठ हिंदू पति के प्रति मानसिक क्रूरता के बराबर है। महाभारत-रामायण में ही नहीं बल्कि मनु स्मृति में भी कहा गया है कि पत्नी के बिना कोई भी यज्ञ अधूरा है। धार्मिक कर्म में पत्नी-पति के साथ बराबर की भागीदार होती है। पति अपने परिवार का इकलौता बेटा है, उसे परिवार के सदस्यों के लिए गई धार्मिक अनुष्ठान करना होता है। विद्वान ट्रायल कोर्ट ने दोनों पक्षों के मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्य के आधार पर प्रतिवादी के पक्ष में सही फैसला किया है। ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज किया गया निष्कर्ष न्यायसंगत, उचित और हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार है और इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। कोर्ट ने अपील को सारहीन बताकर खारिज कर दिया।