सास-ससुर की देखभाल नहीं करना क्रूरता नहीं’, तलाक मामले पर हाईकोर्ट की बड़ी टिप्पणी
राज्य ब्यूरो मोहम्मद आसिफ खान संपादक बीरेंद्र कुमार चौधरी
नई दिल्ली,,, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तलाक के एक मामले पर सुनवाई करते हुए बड़ी टिप्पणी की है. कोर्ट ने कहा कि अगर महिला अपने पति के बुजुर्ग माता-पिता की सेवा नहीं करती है तो इसे क्रूरता नहीं कहा जा सकता है. कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामले व्यक्तिगत होते हैं. हर घर की स्थिति क्या है ऐसे में कोर्ट इनकी विस्तार से जांच नहीं कर सकती ये कोर्ट का काम नही हैं.
न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और न्याय मूर्ति डोनाडी रमेश की खंडपीठ ने मुरादाबाद के पुलिसकर्मी के तलाक मामले पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणी की. याची ने दलील दी थी कि वो पुलिस में है जिसकी वजह से वो अक्सर घर दूर रहता है. उसकी पत्नी अपने सास-सुसर की सेवा करना का नैतिक दायित्व नहीं निभा रही है.
बुजुर्ग माता-पिता की देखभाल नहीं करना क्रूरता नहीं
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मामले पर सुनवाई करते हुए कहा कि इस तरह के आरोप व्यक्तिपरक होते हैं. जब पति घर से दूर हो तो उसके माता-पिता की देखभाल नहीं करना क्रूरता के अंतर्गत नहीं आता है. पति के द्वारा देखभाल के स्तर को कभी आवश्यक तौर पर स्थापित नहीं किया गया है. पति की ओर से अमानवीय या क्रूर व्यवहार की कोई दलील नहीं दी गई जिससे तलाक के लिए जरूरी आरोप तय किए जा सके.
पति या पत्नी के वृद्ध माता-पिता की देखभाल करने में विफलता वह भी तब जब पति अपने घर से दूर रह रहा हो, कभी भी क्रूरता नहीं मानी जा सकती. कोर्ट ने कहा, प्रत्येक घर में क्या सटीक स्थिति हो सकती है. ये अदालत के लिए विस्तार से जांच करने या उस संबंध में कोई कानून या सिद्धांत निर्धारित करने का काम नहीं है. एक अच्छे विवाह की नींव में सहिष्णुता, समायोजन और एक दूसरे का सम्मान करना है.
हाईकोर्ट ने खारिज की याचिका
क्रूरता को निर्धारित करते समय सभी झगड़ों को निष्पक्ष दृष्टिकोण से तौला जाना चाहिए. इससे पहले याची ने क्रूरता के आधार पर तलाक के लिए मुरादाबाद की पारिवारिक कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. लेकिन फैमिली कोर्ट ने याचिका को खारिज कर दिया. जिसके बाद याची ने हाईकोर्ट में अर्जी दी थी.
कोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ता अपनी नौकरी की वजह से घर से दूर रहा था और वह अपनी पत्नी से माता-पिता के साथ रहने की अपेक्षा कर रहा था. जिसके बाद कोर्ट ने उसकी अपील को आधारहीन मानते हुए ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित आदेश में हस्तक्षेप का कोई औचित्य नहीं पाया.