आज से जगन्नाथ रथ यात्रा शुरू, गुंडिचा मंदिर पहुंचेंगे भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा
राज्य ब्यूरो मोहम्मद आसिफ खान संपादक बीरेंद्र कुमार चौधरी
विश्व प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा में नगर भ्रमण करने के लिए भगवान जगन्नाथ अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम संग निकलेंगे, फिर गुंडिचा माता के मंदिर में प्रवेश करेंगे जहां पर कुछ दिनों के लिए आराम करेंगे।
जगन्नाथ पुरी,,,,आज 7 जुलाई रविवार से विश्व प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा शुरू हो रही है। हर वर्ष उड़ीसा के पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का विशाल और भव्य आयोजन किया जाता है। यह रथ यात्रा हिंदू धर्म में विशेष स्थान रखता है। हिंदू पंचांग के अनुसार हर साल आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि पर विशाल रथ यात्रा निकाली जाती है, फिर आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष 10वीं तिथि पर इसका समापन होता है। इस रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र संग साल में एक बार प्रसिद्ध गुंडिचा माता के मंदिर में जाते हैं। इस पवित्र रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ अपने बहन और भाई संग पूरे नगर का भ्रमण करते हैं। इस बार भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा बहुत ही दुर्लभ संयोग होगी। आइए जानते हैं भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा के बारे में सबकुछ।
तीन अलग-अलग रथ में सवार होंगे भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा और बलभद्र
विश्व प्रसिद्ध भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा में नगर भ्रमण करने के लिए भगवान जगन्नाथ अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम संग निकलेंगे, फिर गुंडिचा माता के मंदिर में प्रवेश करेंगे जहां पर कुछ दिनों के लिए रहेंगे। इस रथ यात्रा में तीन अलग-अलग रथ होंगे ,जिसमें भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और बलराम शामिल होंगे। रथयात्रा में सबसे आगे बलराम, बीच में बहन सुभद्रा का रथ फिर सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ का रथ होता है। इन तीनों रथ की अपनी-अपनी खास विशेषताएं होंगी।
जगन्नाथपुरी को धरती का वैकुंठ कहा गया है। –
भगवान जगन्नाथ का रथ
भगवान जगन्नाथ के रथ को नंदीघोष अथवा गरुड़ध्वज कहा जाता है, इनका रथ लाल और पीले रंग का होता है। रथ हमेशा नीम की लकड़ी से बनाया जाता है। हर साल बनने वाले ये रथ एक समान ऊंचाई के ही बनाए जाते हैं। भगवान जगन्नाथ का रथ 44 फीट 2 इंच ऊंचा होता है। इस रथ में कुल 16 पहिए होते हैं। रथ यात्रा में भगवान जगन्नाथ का रथ सबसे आखिरी में चलता है।
रथ का नाम- नंदीघोष
ध्वज का नाम- त्रैलोक्यमोहिनी
ऊंचाई- 44 फीट 2 इंच
पहियों की संख्या- 16
संरक्षक- गरुड़
सारथी- दारुका
घोड़ों के नाम (सफेद)- शंख, बलाहक, सुवेता, दहिदाश्व
रथ की रस्सी का नाम- शंखचूड़ नागिनी
साथी देवता- मदनमोहन
भगवान बलराम का रथ
रथयात्रा में सबसे आगे बलराम जी का रथ चलता है। भगवान बलरामजी के रथ को ‘तालध्वज’ कहा जाता है और इसकी पहचान लाल और हरे रंग से होती है। बलराम का रथ 43 फीट 3 इंच ऊंचाई का होता है। भगवान बलराम के रथ में कुल 14 पहिए होते हैं और जिस रस्सी से इस रथ को खींचा जाता है उसे वासुकी कहते हैं।
रथ का नाम- तलध्वज
ध्वज का नाम- उन्नानी
ऊंचाई- 43 फीट 3 इंच
पहियों की संख्या- 14
संरक्षक- वासुदेव
सारथी- मातलि
घोड़ों के नाम (काला)- त्रिब्रा,घोरा, दीर्घशर्मा, शपथानव
रथ की रस्सी का नाम- बासुकी नाग
साथी देवता- रामकृष्ण
देवी सुभद्रा का रथ
देवी सुभद्रा के रथ को दर्पदलन कहा जाता है जो काले या नीले रंग का होता है। दोनों रथों के बीच में देवी सुभद्रा का रथ चलता है। देवी सुभद्रा का दर्पदलन रथ 42 फ़ीट 3 इंच ऊंचा होता है। इस रथ में 12 पहिए होते हैं। जगन्नाथ मंदिर से रथ यात्रा शुरू होकर 3 कि.मी. दूर गुंडीचा मंदिर पहुंचती है। इस स्थान भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। जिस रस्सी से देवी सुभद्रा का रथ खींचा जाता है उसका नाम स्वर्णाचूड़ा कहा जाता है।
रथ का नाम- दर्पदलन
ध्वज का नाम- नादंबिका
ऊंचाई- 42 फीट 3 इंच
पहियों की संख्या- 12
संरक्षक- जयदुर्गा
सारथी- अर्जुन
घोड़ों के नाम (लाल)- रोचिका, मोचिका, जीता, अपराजिता
रथ की रस्सी का नाम- स्वर्ण चूड़ा नागिनी
साथी देवता- सुदर्शन
मौसी के घर विश्राम करने जाते है भगवान जगन्नाथ
भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा बड़े ही धूम-धाम के साथ निकाली जाती है। रथ को खींचने का नजारा बहुत ही अद्भत होता है। भक्त अपने प्रभु की रथयात्रा ढोल, नगाड़ों, तुरही और शंखध्वनि के साथ करते हैं। जिसे भी इस पवित्र रथ खींचने का सौभाग्य मिलता है उसे महाभाग्यशाली माना जाता है। जगन्नाथ मंदिर से रथ यात्रा शुरू होकर गुंडीचा मंदिर में पहुंचता है जो भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार यहीं पर विश्वकर्मा ने इन तीनों प्रतिमाओं का निर्माण किया था, इस कारण से यह स्थान जगन्नाथ जी की जन्म स्थली भी है। यहाँ तीनों देव सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं।आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ फिर से मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। वापसी की यह यात्रा बहुड़ा यात्रा कहलाती है।
रथ यात्रा में सोने की झाड़ू से होता है रास्ता साफ
तीनों रथ के तैयार होने के बाद इसकी पूजा के लिए पुरी के गजपति राजा की पालकी आती है। इस पूजा अनुष्ठान को ‘छर पहनरा’ नाम से जाना जाता है। इन तीनों रथों की वे विधिवत पूजा करते हैं और सोने की झाड़ू से रथ मण्डप और यात्रा वाले रास्ते को साफ किया जाता हैं।
रथ खींचने में मिलने वाला फल
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जो व्यक्ति रथ यात्रा में शामिल होकर स्वामी जगन्नाथजी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह सारे कष्टों से मुक्त हो जाता है, जबकि जो व्यक्ति जगन्नाथ को प्रणाम करते हुए मार्ग के धूल-कीचड़ आदि में लोट-लोट कर जाता है वो सीधे भगवान विष्णु के उत्तम धाम को प्राप्त होता है।
कैसे शुरू हुई जगन्नाथपुरी में रथ यात्रा
हिंदू धर्म ग्रंथों और पुराणो में जगन्नाथजी की रथ यात्रा के बारे में वर्णन मिलता है। स्कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में रथ यात्रा के बारे में विस्तार से बताया गया है। इस कारण से हिंदू धर्म में इस रथ यात्रा का विशेष महत्व बताया गया है। इस रथ यात्रा को लेकर मान्यता है कि एक दिन भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने उनसे द्वारका के दर्शन कराने की प्रार्थना की थी। तब भगवान जगन्नाथ ने अपनी बहन की इच्छा पूर्ति के लिए उन्हें रथ में बिठाकर पूरे नगर का भ्रमण करवाया था और इसके बाद से इस रथयात्रा की शुरुआत हुई थी। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जो भी व्यक्ति इस रथयात्रा में शामिल होकर इस रथ को खींचता है उसे सौ यज्ञ करने के बराबर पुण्य प्राप्त होता है।
क्यों विराजते हैं जगन्नाथपुरी में भगवान श्रीकृष्ण
पुरी के जगन्नाथपुरी मंदिर में भगवान कृष्ण अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ विराजमान हैं। क्या आपने सोचा है कि भगवान जगन्नाथ पुरी में क्यों विराजमान हैं। दरअसल एक बार द्वारकापुरी में भगवान श्रीकृष्ण रात में सोते समय अचानक नींद में राधे-राधे बोलने लगे। भगवान कृष्ण की पत्नी रुक्मणीजी ने जब सुना तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने भगवान की यह बात अन्य सभी रानियों को भी बताई। सभी रानियां आपस में विचार करने लगीं कि भगवान कृष्ण अभी तक राधा को नहीं भूले हैं। सभी रानियां राधा के बारे में चर्चा करने के लिए माता रोहिणी के पास पहुंचीं। माता रोहिणी से सभी रानियों ने आग्रह किया कि भगवान कृष्ण की गोपिकाओं के साथ हुई रहस्यात्मक रासलीला के बारे में बताएं। पहले तो माता रोहिणी ने उन सभी को टालना चाहा, लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा- ठीक है सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों।
माता रोहिणी द्वारा भगवान श्री कृष्ण की रहस्यात्मक रासलीला की कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलराम अचानक महल की ओर आते दिखाई दिए। देवी सुभद्रा ने अपने दोनों भाईयों को उचित कारण बताकर दरवाजे पर ही रोक लिया। महल के अंदर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की कथा श्रीकृष्ण,सुभद्रा और बलराम तीनों को ही सुनाई दे रही थी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही बहन सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे।
अचानक वहां पर देवऋषि नारद वहां आ गए। नारदजी को देखकर तीनों पूर्ण चेतना में वापस लौटे। नारद जी ने भगवान कृष्ण से प्रार्थना की कि हे भगवान आप तीनों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। भगवान श्री कृष्ण ने तथास्तु कह दिया। कहते हैं भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा जी का वही स्वरूप आज भी जगन्नाथपुरी में है,जिसे स्वयं विश्वकर्मा जी ने बनाया था।
भगवान जगन्नाथ की मूर्ति क्यों है अधूरी
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार राजा इंद्रद्युम्न पुरी में जगन्नाथ जी का मंदिर बनवा रहे थे। उन्होंने भगवान जगन्नाथ की मूर्ति बनाने का कार्य देव शिल्पी विश्वकर्मा को सौंपा। मूर्ति बनाने से पहले विश्वकर्मा जी ने राजा इंद्रद्युम्न के सामने शर्त रखी कि वे दरवाजा बंद करके मूर्ति बनाएंगे और जब तक मूर्तियां नहीं बन जातीं तब तक अंदर कोई प्रवेश नहीं करेगा। उन्होंने ये भी कहा कि यदि दरवाजा किसी भी कारण से पहले खुल गया तो वे मूर्ति बनाना छोड़ देंगे। राजा ने भगवान विश्वकर्मा की शर्त मान ली और बंद दरवाजे के अंदर मूर्ति निर्माण कार्य शुरू हो गया, लेकिन राजा इंद्रद्युम्न ये जानना चाहते थे कि मूर्ति का निर्माण हो रहा है या नहीं। ये जानने के लिए राजा प्रतिदिन दरवाजे के बाहर खड़े होकर मूर्ति बनने की आवाज सुनते थे। एक दिन राजा को अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दी तो उनको लगा कि विश्वकर्मा काम छोड़कर चले गए हैं। इसके बाद राजा ने दरवाजा खोल दिया। इससे नाराज होकर बाद भगवान विश्वकर्मा वहां से अंतर्ध्यान हो गए और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां अधूरी ही रह गईं। उसी दिन से आज तक मूर्तियां इसी रूप में यहां विराजमान हैं और आज भी इसी रूप में उनकी पूजा होती है।